कथा माधवी गालव की
संतोष श्रीवास्तव
माधवी को लिखना मेरे लिए चुनौती था
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माधवी के बारे में लिखते हुए मैं स्त्री को जी रही थी। स्त्री के अनदेखे पहलुओं को जी रही थी। उसके दुर्भाग्य को जी रही थी । हां, मैं इन स्थितियों को नकार सकती थी किंतु नकारने की कोशिश में मेरी कलम ने उठने से इनकार कर दिया था। तो क्या धरती, आकाश, पाताल संपूर्ण ब्रह्मांड यह चाहता था कि मैं माधवी को लिखूँ जबकि माधवी पर विपुल साहित्य लिखा गया। उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य कोई भी विधा नहीं छूटी माधवी वृत्तान्त से । उन्हीं प्रसंगों को थोड़े बहुत उलटफेर से लिखना मुझे रास नहीं आया।
मुझे नए दृष्टिकोण से परखना था माधवी के जीवन को । न जाने कितने सप्ताह, महीने इस कथा के सूत्र को पकड़ने की कोशिश में लगे रहे । फिर एक दिन मैं अपनी कल्पना को उन अरण्यों में ले गई जहां 3 राजाओं के पास बारी-बारी से वर्ष भर के लिए माधवी को शुल्क वसूलने के लिये छोड़ने की योजना बनाता रहा गालव । इस योजना को क्रियान्वित करने में मौसम बदलते रहे। गालव, माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध भी बन गए । मैंने इसी छोर को पकड़ा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया। प्रेम का ऐसा उदात्त स्वरूप जो अपने सारे दुख पीड़ा को भूलकर एक दूसरे में समाहित हो गए।
महाभारत के उद्योग पर्व के 106 से 119 अध्याय तक माधवी की कथा के साथ ही गालव और माधवी की अंतरंगता का एक छोटा सा प्रसंग भी आता है। मैंने उसी को आधार बनाकर कथा लिखी है।
इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्याभिषेक कर दिया।
राजा ययाति अपनी दानशीलता के कारण प्रख्यात थे।
राजा ययाति की कथा में समय करवट बदलता रहा और वे अपने श्वसुर शुक्राचार्य के शाप से युवावस्था में ही वृद्धावस्था को प्राप्त हुए। फिर अपने पुत्र पुरु से उसकी जवानी लेकर कई वर्षों तक भोग लिप्सा में मग्न रहे । फिर भी उनका मन नहीं भरा तो उन्होंने पुरु को उसकी जवानी लौटाकर उसे राजकाज सौंप कर वानप्रस्थ लिया।
और यही वह समय था जब गालव गुरु दक्षिणा के लिए उनके पास श्वेत वर्ण, श्याम कर्ण 800 अश्वों का दान मांगने आता है। किंतु ययाति तो राजपाट त्याग चुके थे। उनके पास कुछ न था किंतु यह भी संभव न था कि वे गालव को खाली हाथ वापस लौटा देते। इससे उनकी दानशीलता पर आंच आ जाती। अतः उन्होंने अपनी पुत्री माधवी को ही अपनी संपत्ति मान गालव को दान में दे दिया।
दान में देते हुए ययाति जरा भी नहीं हिचकिचाते कि उनकी पुत्री युवा है और गालव भी युवा और दोनों ही अविवाहित हैं। यहां तक कि वे स्वयं गुरु दक्षिणा प्राप्ति का उपाय भी गालव को बता देते हैं कि "ऐसे विलक्षण घोड़े किसी एक राज्य में नहीं मिलेंगे । अतः तुम्हें विभिन्न राज्यों में जाना होगा। माधवी उन्हें चक्रवर्ती पुत्र देगी और तुम्हें शुल्क स्वरूप अश्व मिलेंगे । इसे अक्षत यौवना का वरदान प्राप्त है। "
धन्य है ऐसा पिता जो अपनी पुत्री की कोख बेचने की सलाह दे रहा है। हां बेचना ही कहूंगी । क्योंकि उसके बदले उसकी दानशीलता, महानता पर एक और तमगा जड़ जाएगा । लोग उसकी दानशीलता के गुण गाएंगे। किंतु माधवी की पीड़ा को कोई नहीं समझेगा। उसे तो न पुराणों में याद किया जाएगा, न इतिहास में । महलों की राजकुमारी का न किसी को वन वन भटकना याद आएगा न हर वर्ष बदलती सेज पर किसी पर पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाना, उसके पुत्र को जन्म देना याद आएगा। ययाति को इसके लिए मैं कभी क्षमा नहीं करूंगी। माधवी का दुर्भाग्य था जो ययाति उसके पिता थे। केवल माधवी ही नहीं बल्कि अपने पुत्र पुरु के साथ भी उन्होंने अन्याय किया । उसे उसका यौवन जीने न दिया। न ही उनके मन में कभी यह विचार आया कि पुरु की पत्नी कैसे अपना जीवन जिएगी । परम स्वार्थी थे वे। केवल अपने लिए सोचने, अपने लिए जीने वाले पुरुष।
गालव ने वही किया जो उसे उचित लगा । वैसे भी माधवी के प्रति उसके मन में सिवा कृतज्ञता के कुछ न था। हालांकि उसने वन में रहते हुए माधवी से अंतरंग संबंध बनाए । इसे उस वय की आवश्यकता भी कह सकते हैं। जब मैंने इन स्थितियों को समझा तो मुझे गालव कम दोषी नजर आया।
माधवी ने मुझे अंदर ही अंदर उद्वेलित भी किया । कई कई दिन मेरे अंदर यह सवाल उठता रहा कि आखिर माधवी अपनी हर पीड़ा के तहत मौन क्यों रही? न वह ययाति का विरोध कर पाई, न गालव का, न हर्यश्व, दिवोदास, उशीनर का। और तो और विश्वामित्र की अंकिशायिनी बनने में भी उसे कोई गुरेज न था। लेकिन मेरे लिए माधवी का यह गूंगापन बर्दाश्त करना मुश्किल था । अतः मैंने उसमें प्रेम का बीज बोया। जो अपने प्रेमी के लिए कुछ भी कर जाने, किसी भी सीमा को पार कर लेने की क्षमता रखता है । मैंने उसे अपने प्रेमी के प्रति कर्तव्य में ढाला । धैर्य का संबल पकड़ाया और अंत में प्रेमी द्वारा ठुकरा दिए जाने पर संसार से विरक्त होना भी बताया। जिस असहाय, उत्पीड़ित, परपुरूषों द्वारा बार-बार भोगी जाने वाली माधवी को मैंने उद्योग पर्व से उठाया उसे चुनौतियों को स्वीकार करना, शुद्ध सात्विक प्रेम करना और अंत में तमाम झंझावातों का सामना करते हुए अपना शेष जीवन अपने ढंग से बिताने वाली माधवी के रूप में प्रस्तुत किया। और ऐसा करते हुए मुझे अपार संतुष्टि मिली।
मुझे शिकायत है हर्यश्व, उशीनर और दिवोदास से जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए माधवी की कोख का इस्तेमाल किया । वे चाहते तो ऐसा किए बिना भी गालव को अश्व दे सकते थे किंतु इन तीनों के ही पुत्र न था । अतः अपनी वंशवेल के लिए चिंतित तीनों ने माधवी का इस्तेमाल चक्रवर्ती पुत्र की आकांक्षा रखते हुए किया। यह बात भी रेखांकित करने योग्य है कि पुत्र प्राप्ति के सप्ताह भर के अंदर ही उन्होंने सद्यप्रसूता माधवी से उसका पुत्र अपने अधिकार में कर उसे महल से बाहर का रास्ता दिखा दिया । फिर जीवन भर न उन्होंने माधवी से कोई नाता रखा और न उसके पुत्र को ही उससे मिलने दिया । क्रूरता की पराकाष्ठा है यह।
और गुरु विश्वामित्र! नहीं, गुरु नहीं मेरी दृष्टि में वे एक ऐसे तपस्वी थे जो काम को कभी नहीं जीत पाए। कामांधता ने ही उन्हें स्वर्ग की अप्सरा मेनका से संबंध बनाने को प्रेरित किया और कामांधता ने ही उन्हें माधवी की तरफ आकृष्ट किया। अपना मतलब सीधा कर उन्होंने गालव से गुरु दक्षिणा भी पा ली और माधवी से पुत्र भी। यहां भी वही क्रूरता की पराकाष्ठा। नवजात शिशु के पास टिकने न दिया माधवी को। उन्हें तो अपने राज्य के पैतृक संपत्ति स्वरूप 600 अश्वमेधी अश्व भी मिल गए, पुत्र भी मिल गया और इतना सब प्राप्त करने की प्रक्रिया में चाक पर चढ़ी माधवी।
मेरा प्रश्न यहाँ भी।
क्या तपप स्वार्थसिद्धि के लिए किया जाता है ? अगर हां, तो सतयुग में तप को क्यों उत्कृष्ट बताया गया । क्यों तपस्वियों का पेट उनके शिष्यों द्वारा भिक्षावृत्ति से भरा गया ? क्यों तपस्या ने काम पर विजय नहीं पाई ?
सीधा सा उत्तर है .....
उनका पूर्ण तपस्वी नहीं होना। माधवी इसी तपोगुण अथवा अवगुण वाले विश्वामित्र के आश्रम में गालव की गुरु दक्षिणा के शेष 200 अश्वों का मूल्य चुकाने वर्ष भर उनकी शैया की सहभागिनी बनी। उनकी कामपिपासा शांत करती रही। और यह सब उसने केवल और केवल गालव के प्रति अपने प्रेम के कारण किया।
सरोगेसी या किराए की कोख को आधुनिक युग की देन कहा जाता है किंतु यह संकल्पना महाभारत युग में भी थी। जिसका ठोस उदाहरण है माधवी। माधवी की कोख का इस्तेमाल गालव को शुल्क स्वरूप 600 अश्वमेधी अश्व देकर ही हुआ । शिशु को जन्म देने के बाद माधवी को उसे छोड़ने फिर कभी न मिलने को विवश भी उसी तरह किया गया जैसे सरोगेट मदर के साथ किया जाता है। विज्ञान ने कितने ही शोध कर के विकास के रास्ते तय किए हैं किंतु सभी के सूत्र हमारे अतीत की ओर ही जाते हैं और यह हमारे लिये गर्व करने का विषय है।
माधवी कथा सत्य है या मिथक, यह मैं नहीं जानती न ही यह उपन्यास उसकी वास्तविकता और सच्चाई का दावा करता है । यह मेरा महाभारत कालीन लांछित, कलंकित, पुरुषसत्ता से कुचली गई नारियों के लिए समाज के उन तथाकथित आकाओं के प्रति बूंद भर प्रतिशोध है जिन्होंने नारी की कोख से जन्म भी लिया और उसे नर्क का द्वार भी कहा ।
बरहाल, उपन्यास जैसा मैं लिखना चाहती थी पता नहीं लिख पाई या नहीं । पता नहीं यह प्रश्न मुझे कितनी बार और किन-किन पौराणिक, ऐतिहासिक संदर्भों से मथते रहेंगे नहीं जानती । इतना अवश्य कहूंगी कि माधवी को सबल नारी बनाने का बूंद भर प्रयास यह उपन्यास है।
आषाढ़ मास
कृष्ण पक्ष 2
विक्रम संवत 2080
6 जून 2023
भोपाल
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अध्याय 1
सघन वन में संध्या दोपहर ढलते ही प्रतीत होने लगती है । माधवी ने अपने आश्रम के भीतरी प्रकोष्ठ से गगरी उठाई और वृक्षों की हरीतिमा में छुपी ऊंची नीची ढलानों पर बहती नदी की ओर चल दी । नदी का बहाव हमेशा तेज़ ही रहता है। किंतु निर्मल जलधारा मनमोह लेने में सिद्धहस्त है । खिंची चली आती है माधवी और फिर थोड़ा समय नदी के किनारे बैठने को वह विवश हो जाती है। आज भी गगरी जलधारा की ओर लगाई ही थी कि लगा गालव खड़ा है उसके पीछे। जिसका प्रतिबिंब वह नदी के जल पर स्पष्ट देख रही है। देख रही है कि किस तरह उसने गालव और उसके मित्र गरुड़ के साथ इसी प्रयाग वन में प्रथम रात्रि गुजारी थी। प्रथम रात्रि ......उसके जीवन के कठोर कंटकाकीर्ण पथ की साक्षी जिसकी ओर उसके कदम बढ़ चुके थे ।
वह पौष मास की बेहद ठंडी रात्रि थी । खुले वन में ओस टपकाते आसमान के नीचे तीनों बैठे थे । गरुड़ सूखी लकड़ियां इकट्ठी कर लाया था और उन्हें जलाकर अलाव के आसपास तीनों विश्राम कर रहे थे। अचानक उत्तर दिशा की ओर से टूटते तारे को देखकर गालव ने कहा-" देखो मित्र गरुड़, उस टूटते तारे को । धरती की ओर तेजी से आता तारा अभी भी प्रकाशित है। मेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। गुरु विश्वामित्र की दक्षिणा मैँ अवश्य दे पाऊंगा । "
"और तुम गुरु दक्षिणा न दे सकने के क्षोभ में आत्महत्या करने चले थे। तपस्वी मुनि तुम और काम कायरों जैसा !संसार से पलायन भी भीरु पुरुषों का काम है गालव। "
" तुम नहीं समझ सकते गरुड़। अश्वों की चिंता ने मेरा सुख चैन छीन लिया था । जीवन निरर्थक लगने लगा था । ऐसे जीवन का नष्ट हो जाना ही अच्छा था । "
किंतु तुम्हारा हठ ही तो तुम्हारी दुश्चिंता का कारण था। गुरु विश्वामित्र के बार-बार गुरु दक्षिणा लेने को मना करने पर भी तुम दुराग्रह करते रहे। "
"वह दुराग्रह नहीं था मित्र गरूड़, शास्त्र कहता है दक्षिणा युक्त कर्म ही सफल होता है। दक्षिणा देने वाला पुरुष ही सिद्धि को प्राप्त होता है। माधवी चुपचाप दोनों का वार्तालाप सुन रही थी । वह जानती थी गालव अश्व प्राप्त करने के लिए धन की
याचना लेकर ही पिताश्री के पास आया था । किंतु वानप्रस्थ धारण किए वनवासी पिताश्री कहां से देते धन? उन्होंने माधवी को ही अपनी संपत्ति मानते हुए गालव को दान में दे दिया।
आह, पुत्री नहीं संपत्ति! वह दानवीर राजा ययाति की संपत्ति माधवी, पिताश्री के शब्द कानों में गर्म लावे सा टपक रहे थे-
" मुनिवर, गुरु दक्षिणा दुर्लभ है। चंद्रमा के समान उज्जवल वर्ण और श्याम कर्ण के 800 अश्व एक ही राज्य में मिलना असंभव है। मेरे राज्य में तो इस तरह का एक भी अश्व नहीं है । अतः मैं अपनी कन्या माधवी आप को दान में देता हूं। यह आपकी गुरु दक्षिणा के निमित्त अश्वों को जुटाने का साधन बनेगी। यह अक्षत यौवना का वरदान प्राप्त है। और एक चक्रवर्ती पुत्र को जन्म भी देगी । "
माधवी पिताश्री के शब्दों से आहत थी। उसका सर्वांग मानो उन शब्दों की आंधी में पत्ते सा कांप रहा था। क्या वह इन्हीं राजा ययाति की पुत्री है जिन्होंने माता देवयानी के अतिरिक्त किसी और स्त्री से शारीरिक संबंध नहीं बनाने का नाना शुक्राचार्य को दिया वचन शर्मिष्ठा के कारण तोड़ दिया था ? उनके राज महल में दासी बनकर आई दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के सौंदर्य और प्रणय निवेदन के आगे पिताश्री कमजोर पड़ गए थे। शर्मिष्ठा के मोहपाश में उन्हें यह भी याद न रहा कि वह नाना शुक्राचार्य से वचनबद्ध थे। वह वचन की अवहेलना ही तो थी जिससे क्रुद्ध होकर नाना शुक्राचार्य ने उन्हें आजीवन वृद्धावस्था का शाप दिया था । वृद्धावस्था के शाप से घबरा उठे थे राजा ययाति। अभी तो वे स्वयं को युवा ही समझते थे। युवावस्था में ही वृद्धावस्था! वे गुरु शुक्राचार्य के चरणों में गिर पड़े-
" क्षमा, क्षमा करें गुरुदेव। वचन तोड़कर मैंने जो अपराध किया उसका निवारण बताएं। "
"दिया हुआ शाप कभी वापस नहीं लिया जाता। उसका निवारण हो सकता है। "
"गुरुदेव उपाय बताएं। मैं अक्षरशः उसका पालन करूंगा । "
नाना शुक्राचार्य ने कहा -"यदि तुम्हारा कोई पुत्र तुम्हें अपनी जवानी दे तो तुम जब तक चाहो युवा रह सकते हो । "
यह सुनकर पिताश्री राजा ययाति अत्यंत प्रसन्न हुए। लेकिन यह बात भी अपने पुत्रों से कहें कैसे? कई दिनों तक इसी सोच विचार में वे खोये रहे। फिर सोचा अगर कहेंगे नहीं तो समस्या का निदान कैसे होगा ? क्या वे दीर्घकाल तक प्रौढ़ावस्था को ही जीते रहें? समस्त सांसारिक भोग विलास का त्याग करके?
उनकी इस सोच में पुत्रों के प्रति तो तनिक भी स्नेह भाव न था। उन्होंने यह तो सोचा ही नहीं कि अगर वह किसी पुत्र की जवानी लेते हैं तो वह पुत्र युवावस्था में ही वृद्ध हो जाएगा और जीवन के तमाम सुखों से वंचित हो जाएगा।
उन्होंने राज्यसभा में अपने सभी पुत्रों को बुलाकर सारा वृत्तांत कह सुनाया । किंतु उनका कोई भी पुत्र उन्हें अपनी युवावस्था देने को तैयार नहीं था । स्वाभाविक भी थी पुत्रों की अस्वीकृति।
अस्वीकृति के बावजूद अपने कक्ष में बुलाकर प्रत्येक पुत्र से आग्रह किया
ज्येष्ठ पुत्र यदु ने तो सोच विचार करने का समय ही नहीं लिया । तुरंत बोला-" पिताश्री! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं कैसे जीवित रहूंगा, यह संभव नहीं है। अतः मुझे क्षमा करें। "
ययाति ने अपने शेष पुत्रों को भी अपने कक्ष में बुला कर यही मांग की। लेकिन सभी ने अस्वीकार कर दिया। केवल सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की मांग को स्वीकार कर लिया। "
पुनः युवा हो जाने पर पिताश्री राजा ययाति ने यदु से कहा, " ज्येष्ठ पुत्र होकर भी तुमने अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुम्हें राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूं। मैं तुम्हें शाप भी देता हूं कि तुम्हारा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा। "
पिताश्री राजा ययाति ने कई वर्षों तक युवावस्था का सुख भोगा। एक दिन उन्हें अपनी भूल और पुत्र पुरु के प्रति किए गए अन्याय का एहसास हुआ। वे आत्मग्लानि से भर उठे और उन्होंने पुत्र पुरु को उसकी युवावस्था सौंप राजपाट भी सौंप दिया और अपनी पारिवारिक एवम राजकीय जिम्मेदारियों से मुक्त हो प्रभु की उपासना के लिए वानप्रस्थ धारण कर वन की ओर प्रस्थान किया।
कैसी विडंबना है पिताश्री पूरे आर्यावर्त में एक दानवीर राजा के रूप में प्रतिष्ठित हुए किंतु अपनी ही संतान के प्रति न्याय नहीं कर पाए न भ्राता पुरू के प्रति न माधवी के प्रति। देखा जाए तो अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु के प्रति भी तो उन्होंने न्याय नहीं किया।
और माधवी के प्रति तो अन्याय की चरम सीमा ही पार कर दी। गालव के द्वारा मांगे गए 800 विलक्षण अश्वों को न दे सकने की असमर्थता में उन्होंने उसे ही गालव को सौंप दिया जैसे वह कोई वस्तु हो जिसके आकर्षण में बंधकर गालव उसे स्वीकार कर लेगा। एक ऐसी स्वर्ण मुद्राओं से भरी मखमली थैली जिसके द्वारा गालव चक्रवर्ती पुत्रों की आकांक्षा वाले बाजार से अपनी आकांक्षा पूरी कर सकता है। माधवी का मन खिन्नता से भर उठा।
हवा के चलने से वनस्थली पर गिरे सूखे पत्ते खड़के । गरुड़ गालव से कह रहा था-"
"तुम्हारी जैसी धारणा गालव, सुबह मैं विष्णु लोक प्रस्थान करुंगा । तुम राजकुमारी माधवी को लेकर अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास आरंभ करना । "
वन में रात्रि विचरण करने वाले पशु भिन्न भिन्न प्रकार की आवाजें निकाल रहे थे । इसके अलावा वन में निस्तब्धता थी । धीरे-धीरे अंधकार गहराता गया। माधवी और गालव की पलकें भी नींद से बोझिल हो मुंदने लगीं लेकिन गरुड़ जागता रहा । वह हिंसक पशुओं से माधवी और गालव की रक्षा एक रक्षक की भांति करता रहा।
प्रातः काल गरुड़ ने गालव से बिदा ली-" तुम अपने लक्ष्य में सफल होगे। यही प्रार्थना है भगवान विष्णु से । जब तुम्हें 800 अश्व प्राप्त हो जाएं तुम मुझे स्मरण करना मित्र। मैं तुम्हारा हर्ष देखने आ भी सकता हूं । चलता हूं मित्र। "
गालव ने गरुड़ को गले से लगा लिया । माधवी ने हाथ जोड़ते हुए कहा -" आदरणीय, भविष्य किसने देखा है। रात भर तनिक भी विश्राम न कर आपने हमारी रक्षा करते हुए हिंसक पशुओं से बचाया। यह मैं कभी नहीं भूलूंगी। सदैव आभारी रहूंगी आपकी । "
दोनों से विदा ले गरुड़ ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। गालव ने भी माधवी के संग अयोध्या की ओर जाने वाली राह पकड़ी।
बहुत नाम सुना था अयोध्या नरेश हर्यश्व का। उनके पास अवश्य अश्व होंगे । सोचते हुए गालव ने माधवी की ओर देखा। वह सिर झुकाए गालव से हाथ भर की दूरी बनाए उसके संग चल रही थी । अपूर्व सुंदरी माधवी इस समय राजकन्या कम वनकन्या अधिक लग रही थी। नहीं वनकन्या भी नहीं इंद्र की सभा की कोई अप्सरा लग रही थी जिसे इंद्र ने उसी के कार्य की पूर्ति के साधन के रूप में धरती पर भेजा था।
पल भर को गालव के मन में विचार आया था क्यों न माधवी के संग वह स्वयं विवाह कर अपना संसार बसा ले, चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करे। कल्पना मात्र से ही उसे रोमांच हो आया । माधवी को वह अपने हृदय के आसन पर तरह-तरह की भाव भंगिमा में प्रतिष्ठित करने लगा। किंतु अगले ही पल उसने इस विचार को परे ढ़केल दिया । इस समय उसके जीवन का उद्देश्य केवल गुरु दक्षिणा के लिए अश्व प्राप्त करना है।
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